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पुराण (purana) का अंग्रेजी अर्थ

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purāṇapuraana

पुराण के अंग्रेजी अर्थ

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पुराण की परिभाषाएं और अर्थ हिन्दी में

पुराण ADJ

  1. पुरातन । प्राचीन । जैसे पुराण पुरुष ।
  2. अधिक आयु का । अधिक उम्र का ।
  3. जीर्णा ।

पुराण NOUN

  1. प्राचीन आख्यान । पुरानी कथा । सृष्टि, मनुष्य, देवों, दानवों, राजाओं, महात्माओं आदि के ऐसे वृत्तांत जो पुरुषपरंपरा से चले आते हों ।
  2. हिंदुओं के धर्मसंबंधी आख्यानग्रंथ जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि रहते हैं । पुरानी कथाओं की पोथी । विशेष— पुराण अठारह हैं । विष्णु पुराण के अनुसार उनके नाम ये हैं—विष्णु, पद्य, ब्रह्म, शिव, भागवत, नारद, मार्कंडेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वाराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्मांड और भविष्य । पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रत्येक पुराण में अठारहो पुराणों के नाम और उनकीश्लोकसंख्या है । नाम और श्लोकसंख्या प्रायः सबकी मिलती है, कहीं कहीं भेद है । जैसे कूर्म पुराण में अग्नि के स्थान में वायुपुराण; मार्कंडेय पुराण में लिंगपुराण के स्थान में नृसिंहपुराण; देवीभागवत में शिव पुराण के स्थान में नारद पुराण और मत्स्य में वायुपुराण है । भागवत के नाम से आजकल दो पुराण मिलते हैं—एक श्रीमदभागवत, दूसरा देवीभागवत । कौन वास्तव में पुराण है इसपर झगड़ा रहा है । रामाश्रम स्वामी ने 'दुर्जनमुखचपेटिका' में सिद्ध किया है कि श्रीमदभागवत ही पुराण है । इसपर काशीनाथ भट्ट ने 'दुर्जनमुखमहाचपेटिका' तथा एक और पंडित ने 'दुर्जनमुखपद्यपादुका' देवीभागवत के पक्ष में लिखी थी । पुराण के पाँच लक्षण कहे गए हैं— सर्ग, प्रतिसर्ग (अर्थात् सृष्टि और फिर सृष्टि), वंश, मन्वंतर और वंशानुचरित्—'सर्गश्च, प्रतिसर्गश्च, वंशो, मन्वंतराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पंचलक्षणम् । ' पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं । ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं कहीं विरोध भी हैं पर हैं बडे़ काम की । पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं । पुराणों में सबसे पुराना विष्णुपुराण ही प्रतीत होता है । उसमें सांप्रदायिक खींचतान और रागद्वेष नहीं है । पुराण के पाँचो लक्षण भी उसपर ठीक ठीक घटते हैं । उसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय, मन्वंतरों, भरतादि खंडों और सूर्यादि लोकों, वेदों की शाखाओं तथा वेदव्यास द्वारा उनके विभाग, सूर्य वंश, चंद्र वंश आदि का वर्णन है । कलि के राजाओं में मगध के मौर्य राजाओं तथा गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है । श्रीकृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन है पर बिलकुल उस रूप में नहीं जिस रूप में भागवत में है । कुछ लोगों का कहना है कि वायुपुराण ही शिवपुराण है क्योंकि आजकल जो शिवपुराण नामक पुराण या उपपुराण है उसकी श्लोक संख्या २४,००० नहीं है, केवल ७,००० ही है । वायुपुराण के चार पाद है जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति, कल्पों ओर मन्वंतरों, वैदिक ऋषियों की गाथाओं, दक्ष प्रजापति की कन्याओं से भिन्न भिन्न जीवोत्पति, सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की वंशावली तथा कलि के राजाओं का प्रायः विष्णुपुराण के अनुसार वर्णन है । मत्स्यपुराण में मन्वंतरों और राजवंशावलियों के अतिरिक्त वर्णश्रम धर्म का बडे़ विस्तार के साथ वर्णन है और मत्सायवतार की पूरी कथा है । इसमें मय आदिक असुरों के संहार, मातृलोक, पितृलोक, मूर्ति और मंदिर बनाने की विधि का वर्णन विशेष ढंग का है । श्रीमदभागवत का प्रचार सबसे अधिक है क्योंकि उसमें भक्ति के माहात्म्य और श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन है । नौ स्कंधों के भीतर तो जीवब्रह्म की एकता, भक्ति का महत्व, सृष्टिलीला, कपिलदेव का जन्म और अपनी माता के प्रति वैष्णव भावानुसार सांख्यशास्त्र का उपदेश, मन्वंतर और ऋषिवंशावली, अवतार जिसमें ऋषभदेव का भी प्रसंग है, ध्रुव, वेणु, पृथु, प्रह्लाद इत्यादि की कथा, समुद्रमथन आदि अनेक विषय हैं । पर सबसे बड़ा दशम स्कंध है जिसमें कृष्ण की लीला का विस्तार से वर्णन है । इसी स्कंध के आधार पर श्रृंगार और भक्तिरस से पूर्ण कृष्णचरित् संबंधी संस्कृत और भाषा के अनेक ग्रंथ बने हैं । एकादश स्कंध में यादवों के नाश और बारहवें में कलियुग के राचाओं के राजत्व का वर्णन है । भागवत की लेखनशैली और पुराणों से भिन्न है । इसकी भाषा पांडित्यपूर्ण और साहित्य संबंधी चमत्कारों से भरी हुई है, इससे इसकी रचना कुछ पीछे की मानी जाती है । अग्निपुराण एक विलक्षण पुराण है जिसमें राजवंशावलियों तथा संक्षिप्त कथाओं के अतिरिक्त धर्मशास्त्र, राजनीति, राज- धर्म, प्रजाधर्म, आयुर्वेद, व्याकरण, रस, अलंकार, शस्त्र- विद्या आदि अनेक विषय हैं । इसमें तंत्रदीक्षा का भी विस्तृत प्रकरण है । कलि के राजाओं की वंशावली विक्रम तक आई है, अवतार प्रसंग भी है । इसी प्रकार और पुराणों में भी कथाएँ हैं । विष्णुपुराण के अतिरिक्त और पुराण जो आजकल मिलते हैं उनके विषय में संदेह होता है कि वे असल पुराणों के न मिलने पर पीछे से न बनाए गए हों । कई एक पुराण तो मत मतांतरों और संप्रदायों के राग द्वेष से भरे हैं । कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी देवता की प्रधानता स्थापित करता है, कोई किसी की । ब्रह्मवैवर्त पुराण का जो परिचय मत्स्यपुराण में दिया गया है उसके अनुसार उसमें रथंतर कल्प और वराह अवतार की कथा होनी चाहिए पर जो ब्रह्मवैवर्त आजकल मिलता है उसमें यह कथा नहीं है । कृष्ण के वृंदावन के रास से जिन भक्तों की तृप्ति नहीं हुई थी उनके लिये गोलोक में सदा होनेवाले रास का उसमें वर्णन है । आजकल का यह ब्रह्मवैवर्त मुसलमानों के आने के कई सौ वर्ष पीछे का है क्योंकि इसमें 'जुलाहा' जाति की उत्पत्ति का भी उल्लेख है—'म्लेच्छात् कुविंदकन्यायां' जोला जातिर्बभूव ह' (१०, १२१) । ब्रह्मपुराण में तीर्थों और उनके माहात्म्य का वर्णन बहुत अदिक हैं, अनंत वासुदेव और पुरुषोत्तम (जगन्नाथ) माहात्म्य तथा और बहुत से ऐसे तीर्थों के माहात्म्य लिखे गए हैं जो प्राचीन नहीं कहे जा सकते । 'पुरुषोत्तमप्रासाद' से अवश्य जगन्नाथ जी के विशाल मंदिर की ओर ही इशारा है जिसे गांगेय वंश के रिजा चोड़गंगा (सन् १०७७ ई०) ने बनवाया था । मत्स्यपुराण में दिए हुए लक्षण आजकल के पद्मपुराण में भी पूरे नहीं मिलते हैं । वैष्णव सांप्रदायिकों के द्वेष की इसमें बहुत सी बातें हैं । जैसे, पाषडिलक्षण, मायावादनिंदा, तामसशास्त्र, पुराणवर्णनइत्यादि । वैशेषिक, न्याय, सांख्य और चार्वाक तामस शास्त्र कहे गए हैं और यह भी बताया गया है कि दैत्यों के विनाश के लिये बुद्ध रूपी विष्णु ने असत् बौद्ध शास्त्र कहा । इसी प्रकार मत्स्य, कूर्म, लिंग, शिव, स्कंद और अग्नि तामस पुराण कहे गए हैं । सारंश यह कि अधिकांश पुराणों का वर्तमान रूप हजार वर्ष के भीतर का है । सबके सब पुराण सांप्रदायिक है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है । कई पुराण (जैसे, विष्णु) बहुत कुछ अपने प्राचीन रूप में मिलते हैं पर उनमें भी सांप्रदायिकों ने बहुत सी बातें बढ़ा दी हैं । यद्यपि आजकल जो पुराण मिलते हैं उनमें से अधिकतर पीछे से बने हुए या प्रक्षिप्त विषयों से भरे हुए हैं तथापि पुराण बहुत प्राचीन काल से प्रचलित थे । बृहदारण्यक और शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि गीली लकड़ी से जैसे धुआँ अलग अलग निकलता है बैसे ही महान् भूत के निःश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद, अथर्वांगिरस, इतिहास, पुराणविद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान और अनुव्याख्यान हुए । छांदोग्य उपनिषद् में भी लिखा है कि इतिहास पुराण वेदों में पाँचवाँ वेद है । अत्यंत प्राचीन काल में वेदों के साथ पुराण भी प्रचलित थे जो यज्ञ आदि के अवसरों पर कहे जाते थे । कई बातें जो पुराण केलक्षणों में हैं, वेदों में भी हैं । जैसे, पहले असत् था और कुछ नहीं था यह सर्ग या सृष्टितत्व है; देवासुर संग्राम, उर्वशी पुरूरवा संवाद इतिहास है । महाभारत के आदि पर्व में (१ । २३३) भी अनेक राजाओं के नाम और कुछ विषय गिनाकर कहा गया है कि इनके वृत्तांत विद्वान सत्कवियों द्वारा पुराण में कहे गए हैं । इससे कहा जा सकता है कि महाभारत के रचनाकाल में भी पुराण थे । मनुस्मृति में भी लिखा है कि पितृकार्यों में वेद, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण आदि सुनाने चाहिए । अब प्रश्न यह होता है कि पुराण हैं किसके बनाए । शिवपुराण के अंतर्गत रेवा माहात्म्य में लिखा है कि अठारहों पुराणों के वक्ता मत्यवतीसुत व्यास हैं । यही बात जन साधारण में प्रचलित है । पर मत्स्यपुराण में स्पष्ट लिखा है कि पहले पुराण एक ही था, उसी से १८ पुराण हुए (५३ । ४) । ब्राह्मांड पुराण में लिखा है कि वेदव्यास ने एक पुराणसंहिता का संकलन किया था । इसके आगे की बात का पता वपिष्णु पुराण से लगता है । उसमें लिखा है कि व्यास का एक लोमहर्षण नाम का शिष्य था जो सूति जाति का था । व्यास जी ने अपनी पुराण संहिता उसी के हाथ में दी । लोमहर्षण के छह शिष्य थे— सुमति, अग्निवर्चा, मित्रयु, शांशपायन, अकृतव्रण और सावर्णी । इनमें से अकृत- व्रण, सावर्णी और शांशपायन ने लोमहर्षण से पढ़ी हुई पुराणसंहिता के आधार पर और एक एक संहिता बनाई । वेदव्यास ने जिस प्रकार मंत्रों का संग्रहकर उन का संहिताओं में विभाग किया उसी प्रकार पुराण के नाम से चले आते हुए वृत्तों का संग्रह कर पुराणसंहिता का संकलन किया । उसी एक संहिता को लेकर सुत के चेलों के तीन और संहीताएँ बनाई । इन्हीं संहिताओं के आधार पर अठारह पुराण बने होंगे । मत्स्य, विष्णु, ब्रह्मांड आदि सब पुराणों में ब्रह्मपुराण पहला कहा गया है । पर जो ब्रह्मपुराण आजकल प्रचलित है वह कैसा है यह पहले कहा जा चुका है । जो कुछ हो, यह तो ऊपर लिखे प्रमाण से सिद्ध है कि अठारह पुराण वेदव्यास के बनाए नहीं हैं । जो पुराण आजकल मिलते हैं उनमें विष्णुपुराण और ब्रह्मांडपुराण की रचना औरों से प्राचीन जान पड़ती है । विष्णुपुराण में 'भविष्य राजवंश' के अंतर्गत गुप्तवंश के राजाओं तक का उल्लेख है इससे वह प्रकरण ईसा की छठी शताब्दी के पहले का नहीं हो सकता । जावा के आगे जो बाली टापू है वहाँ के हिंदुओं के पास ब्रह्मांडपुराण मिला है । इन हिंदुओं के पूर्वज ईसा की पाँचवी शताब्दी में भारतवर्ष में पूर्व के द्वीपों में जाकर बसे थे । बालीवाले ब्रह्मा़डपुराण में 'भविष्य राजवंश प्रकरण' नहीं है उसमें जनमेजय के प्रपौत्र अधिसीमकृष्ण तक का नाम पाया जाता है । यह बात ध्यान देने की है । इससे प्रकट होता है कि पुराणों में जो भविष्य राजवंश है वह पीछे से जोड़ा हुआ है । यहाँ पर ब्रह्मांडपुराण की जो प्राचीन प्रतियाँ मिलती हैं देखना चाहिए कि उनमें भूत और वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग कहाँ तक है । 'भविष्यराजवंश वर्णन' के पूर्व उनमें ये श्लोक मिलते हैं— तस्य पुत्रः शतानीको बलबान् सत्यविक्रमः । ततः सुर्त शतानीकं विप्रास्तमभ्यषेचयन् । । पुत्रोश्वमेधदत्तो/?/भूत् शतानीकस्य वीर्यवान् । पुत्रो/?/श्वमेधदत्ताद्वै जातः परपुरजयः । । अधिसीमकृष्णो धर्मात्मा साम्पतोयं महायशाः । यस्मिन् प्रशासति महीं युष्माभिरिदमाहृतम् । । दुरापं दीर्घसत्रं वै त्रीणि दर्षाणि पुष्करम् वर्षद्वयं कुरुक्षेत्रे दृषद्वत्यां द्विजोत्तमाः । । अर्थात्— उनके पुत्र बलवान् और सत्यविक्रम शतानीक हुए । पीछे शतानीक के पुत्र को ब्राह्मणों ने अभिषिक्त किया । शतानीक के अश्वमेधदत्त नाम का एक वीर्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ । अश्वमेधदत्त के पुत्र परपुरंजय धर्मात्मा अधिसीमकृष्ण हैं । ये ही महायशा आजकल पृथ्वी का शासन करते हैं । इन्हीं के समय में आप लोगों ने पुष्कर में तीन वर्ष का और दृषद्वती के किनारे कुरुक्षेत्र में दो वर्ष तक का यज्ञ किया है । उक्त अंश से प्रकट है कि आदि ब्रह्मांडपुराण अधिसीमकृष्ण के समय में बना । इसी प्रकार विष्णुपुराण, मत्स्यपुराण आदि की परीक्षा करने से पता चलता है कि आदि विष्णुपुराण परीक्षित के समय में और आदि मत्स्यपुराण जनमेजय के प्रपौत्र अधिसीमकृष्ण के समय में संकलित हुआ । पुराण संहिताओं से अठारह पुराण बहुत प्राचीन काल में ही बन गए थे इसका पता लगता है । आपस्तंबधर्मसूत्र(२ । २४ । ५) में भविष्यपुराण का प्रमाण इस प्रकार उदधृत है— आभूत संप्लवात्ते स्वर्गजितः । पुनः सर्गे बीजीर्था भवतीति भविष्यत्पुराणे । यह अवश्य है कि आजकल पुराण अपने आदिम रूप में नहीं मिलते हैं । बहुत से पुराण तो असल पुराणों के न मिलने पर फिर से नए रचे गए हैं, कुछ में बहुत सी बातें जोड़ दी गई हैं । प्रायः सब पुराण शैव, वैष्णव और सौर संप्रदायों में से किसी न किसी के पोषक हैं, इसमें भी कोई संदेह नहीं । विष्णु, रुद्र, सूर्य आदि की उपासना वैदिक काल से ही चली आती थी, फिर धीरे धीरे कुछ लोग किसी एक देवता को प्रधानता देने लगे, कुछ लोग दूसरे को । इस प्रकार महाभारत के पीछे ही संप्रदायों का सूत्रपात हो चला । पुराणसंहिताएँ उसी समय में बनीं । फिर आगे चलकर आदिपुराण बने जिनका बहुत कुछ अंश आजकल पाए जानेवाले कुछ पुराणों के भीतर है । पुराणों का उद्देश्य पुराने वृत्तों का संग्रह करना, कुछ प्राचीन और कुछ कल्पित कथाओं द्वारा उपदेश देना, देवमहिमा तथा तीर्थमहिमा के वर्णन द्वारा जनसाधारण में धर्मबुदिध स्थिर रखना दी था । इसी से व्यास ने सूत (भाट या कथक्केड़) जाति के एक पुरुष को अपनी संकलित आदिपुराणसंहिता प्रचार करने के लिये दी । पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि संबंधी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परंपरागत वृत्तांतों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा सांप्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं । पुराण उस प्रकार प्रमाण ग्रंत नहीं हैं जिस प्रकार श्रुति, स्मृति आदि हैं । हिंदुओं के अनुकरण पर जैन लोगों में भी बहुत से पुराण बने हैं । इनमें से २४ पुराण तो तीर्थकरों के नाम पर हैं; और भी बहुत से हैं जिनमें तीर्थकरों के अलौकिक चरित्र, सब देवताओं से उनकी श्रेष्ठता, जैनधर्म संबंधी तत्वों का विस्तार से वर्णन, फलस्तुति, माहात्म्य आदि हैं । अलग पद्मपुराण और हरिवंश (अरिष्टनेमि पुराण) भी हैं । इन जैन पुराणों में राम, कृष्ण आदि के चरित्र लेकर खूब विकृत किए गए हैं । बौद्ध ग्रंथों में कहीं पुराणों का उल्लेख नहीं है पर तिब्बत और नैपाल के बौद्ध ९ पुराण मानते हैं जिन्हें वे नवधर्म कहते हैं —(१) प्रज्ञापारमिता (न्याय का ग्रंथ कहना चाहिए), (२) गंडव्यूह, (३) समाधिराज, (४) लंकावतार (रावण का मलयागिरि पर जाना, और शाक्यसिंह के उपदेश से बोधिज्ञान लाभ करना वर्णित है), (५) तथागतगुह्यक, (६) सद्धर्मपुंडरीक, (७) ललितविस्तर (बुद्ध का चरित्र), (८) सुवर्णप्रभा (लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी आदि की कथा और उनका शाक्यसिंह का पूजन) (९) दशभूमीश्वर ।
  3. अठारह की संख्या ।
  4. शिव ।
  5. कार्षापण । एक पुराना सिक्का ।
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विवरण

पुराण, हिन्दुओं के धर्म-सम्बन्धी आख्यान ग्रन्थ हैं, जिनमें संसार - ऋषियों - राजाओं के वृत्तान्त आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत समय बाद के ग्रन्थ हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण प्राचीन भक्ति-ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गयी हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण दिया गया है।

Puranas are a vast genre of Hindu literature about a wide range of topics, particularly about legends and other traditional lore. The Puranas are known for the intricate layers of symbolism depicted within their stories. Composed originally in Sanskrit and in other Indian languages, several of these texts are named after major Hindu gods such as Vishnu, Shiva, Brahma, and Adi Shakti. The Puranic genre of literature is found in both Hinduism and Jainism.

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पुराण का अंग्रेजी मतलब

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"पुराण" के बारे में

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